"लिंग का प्रतीकवाद

Sanjay Bajpai
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लिंग का प्रतीकवाद - शिवलिंग की पूजा का गूढ़ रहस्य

लिंग का प्रतीकवाद: शिवलिंग की पूजा का गूढ़ रहस्य

लिंग का प्रतीक, भारतीय दर्शन में मात्र एक शारीरिक अंग नहीं है, बल्कि ब्रह्मांड की चेतना और सृष्टि के मूल सिद्धांत का प्रतीक है। शिव के लिंग का स्थिर होना तीनों लोकों में संतुलन लाता है। यदि शिव स्वयं आगंतुक हों, तब भी जब तक उनका लिंग स्थिर नहीं होता, सृष्टि अधूरी रहती है।

शक्ति और शिव का संतुलन

देवी पार्वती को योनि के रूप में प्रकट होना पड़ता है ताकि शिवलिंग को स्थिरता प्राप्त हो सके। यह सृष्टि के संतुलन का प्रतीक है, जिसमें शक्ति और शिव एकाकार होते हैं। यही मूल तांत्रिक सत्य है।

लिंग पूजा का महत्त्व

"जो व्यक्ति लिंग की पूजा किए बिना अपना जीवन व्यतीत कर देता है, वह वास्तव में दयनीय है।"

लिंग पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि चेतना और आनंद की पूर्ति है। यह सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना), और आनंद (परमानंद) का प्रतीक है। प्रजनन के साधन में आनंद की झलक, दिव्यता के अनुभव की पूर्वध्वनि है।

मानव और सृष्टिकर्ता का अंतर

लिंग पूजा यह स्वीकार करती है कि मनुष्य क्षणिक है जबकि प्रजाति और नियम शाश्वत हैं। यह मानवरूपी एकेश्वरवाद को नकार कर ब्रह्मांडीय सिद्धांतों को प्राथमिकता देती है।

लिंग पंथ और सामाजिक चेतावनी

शैव ग्रंथों के अनुसार, जो समाज लिंग पूजा और यौन प्रतीकों के प्रति सम्मान खो देता है, वह आत्म-विनाश की ओर बढ़ता है। असुरों की भांति, ऐसे समाज भी नष्ट हो जाते हैं।

निष्कर्ष

लिंग प्रतीक के माध्यम से हम केवल प्रजनन अंग की पूजा नहीं करते, बल्कि हम सृष्टि, चेतना और परमानंद के उस बिंदु की पूजा करते हैं जो हमें ब्रह्मांड से जोड़ता है। यह स्मरण कराता है कि हम क्षणिक हैं, लेकिन हमारा योगदान ब्रह्मांड की स्थायी प्रक्रिया में है।


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