योग और मन-शरीर की एकता: मानव प्रकृति की व्यावहारिक समझ

Sanjay Bajpai
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आध्यात्मिक ज्ञान की विशाल भूमि में योग एक अलग स्थान रखता है—सिर्फ़ एक दर्शन नहीं, बल्कि आत्म-परिवर्तन का विज्ञान है।

जहाँ थियोसोफी जैसे तंत्र मनुष्य को कई स्तरों में विभाजित करते हैं—भौतिक, सूक्ष्म, मानसिक, कारण शरीर या *अन्नमय-कोष*, *प्राणमय-कोष* आदि—वहीं योग एक सीधा, व्यावहारिक मार्ग अपनाता है।

यह टुकड़ों में नहीं उलझता।
यह समग्र व्यक्ति को देखता है—टुकड़ों में बँटे हुए नहीं।

🌟 मुख्य अंतर्दृष्टि: मनुष्य — चेतना की एक इकाई

मनुष्य एक चेतना की इकाई है, जो शरीर और मन के आवरणों के माध्यम से कार्य करता है।

प्रत्येक व्यक्ति में केवल एक "मैं" होता है—वह जागरूक साक्षी जो सारे अनुभवों के पीछे होता है। लेकिन यह “मैं” हमेशा किसी आवरण में लिपटा होता है—शरीर, विचार, भावना के रूप में।

🔁 प्राण और प्रधान: योगिक मनोविज्ञान के दो स्तंभ

1. प्राण – जीवन-चेतना

प्राण सम्पूर्ण जीवन-शक्ति है—वह चेतना-सक्रिय तत्व जो गति, संवेदना, विचार और अनुभूति के पीछे काम करता है।

जिससे आप पूरी तरह एकात्म हैं—वह प्राण का भाग है।

2. प्रधान – वस्तु जिसे अलग देखा जा सकता है

प्रधान वह सब कुछ है जिसे आप अपनी चेतना में देख सकते हैं और कह सकते हैं, “यह मेरा है, मैं नहीं हूँ।”

जो वस्तु ‘स्व’ से अलग प्रतीत हो, वही योग में 'शरीर' मानी जाती है।

🧭 वियोग की यात्रा: एकत्व से स्वतंत्रता की ओर

योग का मार्ग पहचान के त्याग (Dis-identification) का मार्ग है।

  • “मैं शरीर नहीं हूँ।”
  • “मैं विचार नहीं हूँ।”
  • “मैं यह शांत अवस्था भी नहीं हूँ।”

हर बार जब आप एक परत छोड़ते हैं—“यह मैं नहीं हूँ” कहते हैं—तो आप केंद्र की ओर बढ़ते हैं: शुद्ध चेतना की इकाई—जीवात्मा।

“मन की सभी अवस्थाएँ हर स्तर पर विद्यमान होती हैं।” – व्यास

🔍 कहाँ से शुरू करें? – स्वयं को व्यावहारिक रूप से जानें

योग को गंभीरता से लेना है? तो पहले खुद से पूछिए:

  • मैं किससे अपनी पहचान जोड़ता हूँ?
  • क्या मैं कह सकता हूँ: "यह शरीर मैं नहीं हूँ"?
  • क्या भावनाएँ मेरी हैं या मैं उनका गुलाम हूँ?
  • जब मैं कहता हूँ “मैं क्रोधित हूँ,” तो यह ‘मैं’ कौन है?

प्रगति इस बात से मापी जाती है कि आपने कितनी परतें हटाईं—not कितने श्लोक रटे।

✨ अंतिम विचार: योग दर्शन नहीं—रूपांतरण है

योग इसलिए नहीं है कि हम दार्शनिक बनें—बल्कि इसलिए है कि हम मुक्त बन सकें।

जब तक आप सिद्ध न कर सकें कि आप शरीर या मन नहीं हैं, तब तक उन्हें साधना का क्षेत्र मानिए।

योग को अपनी प्रयोगशाला बनाइए। आत्म-अवलोकन को विधि। वियोग को उपकरण।

एक दिन, आप खड़े होंगे—न शरीर में, न मन में—बल्कि साक्षी स्वरूप में। ब्रह्माण्ड को जैसे वस्त्र की तरह पहनते हुए—जिसे आप जब चाहें त्याग सकते हैं। यही है योग।

🙏 नमस्ते।
जहाँ हैं, वहीं से शुरू करें। ध्यान से देखें—आप क्या “मैं” मानते हैं। और धीरे-धीरे, उससे परे बढ़ें।




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