🕉️ अद्वैत वेदांत: वास्तविकता की परतों का उद्घाटन

Sanjay Bajpai
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🕉️ अद्वैत वेदांत: वास्तविकता की परतों का उद्घाटन

वेदांत हिंदू धर्म की तीन प्रमुख धाराओं में से अद्वैत वेदांत — विशिष्टाद्वैत और द्वैत से एकदम अलग खड़ी होती है, क्योंकि यह मूल रूप से यह मानती है कि सभी प्रकार की द्वैतता — यहाँ तक कि एक ईश्वर की धारणा भी — केवल माया के क्षेत्र में आती है। जबकि सामान्य धार्मिक प्रथाएं ईश्वरवाद या धर्मनिरपेक्षता की ओर झुक सकती हैं, अद्वैत वेदांत स्पष्ट रूप से कहती है:
"सत्य सभी नामों, रूपों और गुणों से परे है।"


🧠 माया बनाम वास्तविकता: समझ के दो मार्ग

अद्वैत में माया और वास्तविकता के भेद को समझने के लिए दो प्रमुख दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाए जाते हैं:

1. ज्ञानमीमांसा (Epistemological) दृष्टिकोण: सत्य के स्तर

यह दृष्टिकोण मानता है कि सत्य के भिन्न-भिन्न स्तर होते हैं:

  • सापेक्ष या व्यवहारिक सत्य (व्यवहारिक सत्य) — जिसे हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं: संसारिक घटनाएं, व्यक्तिगत पहचान, और यहां तक कि एक विशिष्ट ईश्वर की धारणा भी।

  • परम सत्य (पारमार्थिक सत्य) — केवल ब्रह्म है: अपरिवर्तनीय, निर्गुण और सर्वव्यापक।

ब्रह्म कोई विशेषण नहीं है जैसे कि "अनंत", बल्कि वह स्वयं ही अनंतता है, समस्त अस्तित्व का आधार।


2. तत्त्वमीमांसा (Ontological) दृष्टिकोण: सत्ता के स्तर

यदि कोई वस्तु A, वस्तु B पर निर्भर है, लेकिन B स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में है — तो B अधिक वास्तविक है।
इस तर्क से, ब्रह्म ही एकमात्र स्वतंत्र वास्तविकता है

ईश्वर की भी जो धारणा है (प्रेम, न्याय, रूप आदि से युक्त), वह भी माया के क्षेत्र में आती है, क्योंकि वह गुणों के माध्यम से परिभाषित होती है — और गुण सीमित होते हैं।


🔍 मूल समस्या: अज्ञान (अविद्या)

अद्वैत का मूल कथन है:
हम माया को ही वास्तविकता समझ बैठते हैं — यही अज्ञान है।

यह अविद्या ही जन्म-मरण के चक्र (संसार) को जन्म देती है। इसका समाधान है — प्रत्यक्ष, अनुभवसिद्ध ज्ञान, जिसे कहते हैं:
मोक्ष (मुक्ति)

अद्वैत में मोक्ष कोई ईश्वर प्रदत्त पुरस्कार नहीं, बल्कि ज्ञान का गहन रूपांतरण है:

"विषय और द्रष्टा का भेद समाप्त हो जाता है। आत्मा पृथक नहीं रहती — व्यक्तिगत पहचान ही एक भ्रम है।"

इस दृष्टिकोण में अद्वैत का दर्शन जैन और थेरवाद बौद्ध परंपराओं के निकट आता है —
मोक्ष एक स्वप्रेरित यात्रा है, जो आत्म-अन्वेषण, अध्ययन और अनुशासन से प्राप्त होती है।


📜 शंकराचार्य का सिद्धांत: माया वास्तविकता पर निर्भर

शंकराचार्य के अद्वैत मत में:

  • माया (अभास) और ब्रह्म (सत्य) — दोनों को स्वीकार किया गया है।

  • लेकिन माया पूरी तरह ब्रह्म पर निर्भर है, जबकि ब्रह्म किसी पर निर्भर नहीं।

ब्रह्म निराकार और निर्गुण है, इसलिए उसमें किसी भी गुण की बात नकारात्मक परिभाषा द्वारा की जाती है —
(नेति नेति: "यह नहीं, वह नहीं") — अर्थात ब्रह्म अज्ञ नहीं है, निर्जीव नहीं है, दुखी नहीं है।


🪞 तो फिर माया क्या है?

यहां एक रहस्य खड़ा होता है।
अद्वैत के अनुसार:

  • जो कुछ हम अनुभव करते हैं — वह मात्र माया का स्तर है।

  • यह न केवल ब्रह्म से "कम" वास्तविक है, बल्कि पूरी तरह एक भ्रांति है

लेकिन फिर भी यह माया हमें वास्तविक प्रतीत होती है — हमारे जीवन को प्रभावित करती है, इच्छाओं को जन्म देती है —
लेकिन ब्रह्म की दृष्टि से, यह सब कुछ मात्र एक क्षणिक मृगतृष्णा (मृगजल) के समान है।


निष्कर्ष:

अद्वैत वेदांत हमें संसार को नकारने को नहीं कहता,
बल्कि उसके पार देखने का आह्वान करता है —
हर नाम और रूप के पीछे जो एक अपरिवर्तनीय सत्य है,
वही है:

"ब्रह्म ही सत्य है; जगत केवल प्रकट रूप है; और आत्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है।"



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